Thursday, April 2, 2009

ग़ज़ल

मन्दिर हो मस्जिज्द हों सिआसत न पूछिये
फिरकों में नफरतों की जहालत न पूछिये

उसके सहारे छोड़ दे कश्ती को न खुदा
फिर आर हो या पार ज़मानत न पूछिये

जाना हे हर किसी ने ज़माने को छोड़ कर
कितनी किसी ने की ये इबादत न पूछिये

रख ली थी लाज उसने कलमो रिसाल की
कितनी अजीम थी वो शहादत न पूछिये

इंसानियत से बढ़ के तो कुछ भी बड़ा नही
"सागर " से दोस्तों ये रिसालत न पूछिये

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